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हेंवल घाटी से बदली चिपको आंदोलन की दिशा, पीएसी लौटी बैरंग




अदवानी में वनों को बचाने को पहुंचे ग्रामीण

 

चिपको आंदोलन को समर्थन देने पहुंचे रिचर्ड सेंट बार्बे बेकर 


बहुगुणा ने यहीं दिया क्या हैं जंगल के उपकार मिट्टी  पानी और बयार, नारा

वनों को बचाने के लिए हथकड़ी पहन कर पहली बार जेल गए आंदोलनकारी 

कुंवर प्रसून ने इजाद किए आंदोलन के नए-नए तरीके, आंदोलन के लिए नारे भी गढ़े


वनों को लेकर बहुगुणा के विचारों को हेंवलघाटी में मूर्त रूप मिला। यहां लोग पेड़ों को आरों से बचाने के लिए उन पर न केवल चिपक गए बल्कि पुलिस और पीएसी का सामना करने के साथ ही बाकयदा हथकड़ी पहन कर जेल भी गए। सुदर लाल बहुगुणा ने यहीं नारा दियाः- क्या हैं जंगल के उपकार मिट्टी पानी और बयार। 

बहुगुणा की प्रेरणा से धूम सिंह नेगी ने स्थानीय स्तर पर आंदोलन को नेतृत्व प्रदान किया तो कुंवर प्रसून ने आंदोलन केे लिए नए-नए तरीके इजाद किए और नारे गढ़े। आंदोलन में प्रताप शिखर, दयाल भाई, रामराज बडोनी, विजय जड़धारी, सुदेशा देवी, बचनी देवी और सौंपा देवी समेत दर्जनों महिलाओं युवाओं और छात्रों की अहम भूमिका रही। बकौल रामराज बडोनी आंदोलन सुंदर लाल बहुगुणा के मार्गदर्शन में चला और जन कवि घनश्याम सैलानी और जीवानंद श्रीयाल के गीतों ने जन जागरण में अहम भूमिका निभाई। सुदेशा देवी के अनुसार आंदोलन से पहले 1971 के शराब बंदी आंदोलन में महिलाओं को एकजुट करने वाली हेमा बहिन ने हेंवल घाटी में सुंदर लाल बहुगुणा के साथ आकर महिलाओं को आंदोलन के लिए प्रेरित किया।

उत्तराखंड के चप्पे-चप्पे को पैदल नापने के बाद सुंदर लाल बहुगुणा ने अपने अनुभव अपने सर्वोदयी साथियों के साथ साझा किए। उन्होंने कहा कि पेड़ों के अत्याधिक दोहन से ही बाढ़ और प्राकृतिक आपदाएं झेलनी पड़ रही हैं। उन्होंने बताया कि अंग्रेज विल्सन से मिली व्यापारिक सोच के बाद वन विभाग भी प्राकृतिक चैड़ी पत्ती के मिश्रित वनों की जगह लीसा और लकड़ी के लिए एकल प्रजाति के चीड़ के वनों को पनपा रहा है। नौबत यह आ गयी है कि वन के नाम पर अब चीड़ ही चीड़ दिखता है। और ज्यादा लीसा निकालने के लिए गहरे-गहरे घावों से चीड़ के पेड़ भी गिरते जा रहे हैं। ऐसे में प्रकृति के कोप से बचने के लिए चीड़ के पेड़ों को भी बचाए रखना जरूरी हो गया है। उन्होंने कहा कि वन रहेंगे तभी हमारा जीवन भी सुरक्षित रहेगा। बाद में सरकार द्वारा गठित वीरेंद्र कुमार समिति ने भी 1970 में अलकनंदा की बाढ़ के लिए भी अलकनंदा के जलागम क्षेत्र में हुए पेड़ कटान को एक कारण बताया। 

बहुगुणा के तर्कों को मान्यता देते हुए 14 अगस्त 1974 को कुमायूं के गरुड़ में हुई सभा में प्रस्ताव पारित किया गया कि लीसा निकालने की ठेकेदारी प्रथा बंद हो और नदियों के जलागमों के वनों में पेड़ों के कटान पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाया जाय। इसके बाद ही पूरे उत्तराखंड में वनों की नीलामी का व्यापक विरोध हुआ और आंदोलनकारियों को जेल तक जाना पड़ा। उत्तरकाशी में अक्तूबर 1974 मेंसुंदर लाल बहुगुणा ने पेड़ों की नीलामी के विरोध में दो हफ्ते का उपवास किया। उधर हेंवलघाटी से तो पेड़ों को बचाने के लिए चलाए गए चिपको आंदोलन की दिशा ही बदल गयी। बहुगुणा की चेतावनी की ओर ध्यान दिलाने के लिए हेंवल घाटी में उनके सहयोगियों ने लीसा निकालने के लिए बनाऐ गए गहरे घावों वाले चीड़ के पेड़ों पर ठोंकी गयी लोहे की पत्तियां उखाड़कर फेंक दीं और घावों पर गीली मिट्टी लगाकर बाहर से टाट बांध कर मरहम पट्टी कर दी। इसके लिए उन्होंने वन दिवस को चुना। 30 मई 1977 को जाजल में जमा होकर युवा, किशोर और बुजुर्गों की टोली ढोल बाजों के साथ 12 किमी दूर गोतार्स के जंगल पहुंची और तिलाड़ी के शहीदों को श्रद्धांजलि देने के बाद टोली ने चीड़ के पेड़ों पर मरहम पट्टी कर दी। जुलूस का नेतृत्व रघुनाथ सिंह कर रहे थे तो कुलवीर सिंह ढोल और कुंवर प्रसून नगाड़ा बजा रहे थे।

इसके बाद 27 जून को जाजल में एक सभा हुई और इस अभियान को आंदोलन के रूप में चलाने का निश्चय किया गया। इसके लिए हेंवल घाटी वन सुरक्षा समिति का गठन किया गया। समिति में कोटी के रघुनाथ सिंह, गौंडी के चंदन सिंह, रामपुर के सोबन सिंह, आमपाटा के रघवीर सिंह और प्रेमदास, मणदा के उत्तम दास, जाजल के मंगल सिंह, गौंड के सुमेर सिंह और बुद्धि सिंह तथा पाली के दयाल सिंह को शामिल किया गया। सुमन दिवस पर 25 जुलाई 1977 को भराड़ी के जंगल में भी गोतार्स की तरह ही पेड़ों पर मरहम पट्टी की गयी। मूसलाधार बारिश के बीच 200 से अधिक महिला-पुरुष जिनमें सभी वय के लोग शामिल थे, जुलूस की शक्ल में ढोल बाजों के साथ इसके लिए भराड़ी के जंगल में पहुंचे। फिर जोड़ी डांडा के जंगल में भी ऐसा ही किया गया। इन तीनों जंगलों में लीसा निकालने के लिए ठेकेदार ने नेपाली श्रमिक लाए थे। ठेकेदार ने उन्हें भड़का कर अशांति फैलाने की कोशिश की। ठेकेदार ने नरेंद्रनगर थाने में कुछ लोंगों के खिलाफ रिपोर्ट भी दर्ज करा दी। रिपोर्ट में श्रमिकों की झोपड़ियां जलाने और वन संपत्ति को नुकसान पहुंचाने का आरोप लगाया गया था। जोड़ी डांडा में नेपाली श्रमिक हिंसा पर उतारू हो गए। इस पर धूम सिंह नेगी के नेतृत्व में ग्रामीणों ने शांति जुलूस निकालकर कर तनाव शांत करने का प्रयास किया। उधर नरेंद्रगर थाने से पुलिस भी जाजल पहुंच गयी। थानेदार फिर 4 अगस्त को पुलिस के साथ गोतार्स के जंगल गया पर जांच के बाद उसने आरोप सही नहीं पाए। हेंवलघाटी के अपनी तरह के इस अनोखे आंदोलन की गूंज चारों तरफ फैल गयी। लोक कवि घनश्याम सैलानी ने इस आंदोलने को लेकर पहाड़ बचावा नामक गीत लिखा। 

इसके बोल थेः- लीसा का घौ लैगी गैरा, डाला रोणा छ, छिल्का तौंका उतारी उजाला होंणा छ।

चीड़- कुलैं डाल्यों कु दुख दर्द मिटावा, माटा व पाणि की मरम पट्टी लगावा।

जीवानंद श्रीयाल ने गीत लिखाः- जंगल ही छन जीवन,रक्षा कर्न छ हर पल,उठा चला सब जंगल रक्षा मंगल-दंगल।

9 अगस्त को टिहरी के अरण्यपाल देवी प्रसाद गुप्ता गोतार्स जंगल का निरीक्षण करने पहुंचे। उन्होंने लीसे के घावों की माप और गणना की।  गैंड ब्लाक के कूप नं. 47 में अनियमितता मिलने पर उन्होंने ठेकेदार की लीज निरस्त कर दी और रेंजर को निलंबित कर दिया। अकेले गोतार्सके जंगल में 1806 घाव अवैध बताए गए। उन्होंने जहां मरहम पट्टी की गयी थी उन तीनों ही जंगलों में लीसे का दोहन भी बंद करवा दिया। यह हेंवलघाटी के आंदोलन की पहली जीत थी। लेकिन ग्रामीणों के विरोध के बावजूद नरेंद्रनगर के टाउन हाल में 13-14 और 15 अक्तूबर को टिहरी और उत्तरकाशी के जंगलों की नीलामी की गयी। सुंदर लाल बहुगुणा ने विरोध में तीन दिन का मौन उपवास किया। हेंवलघाटी के जंगलों की भी नीलामी की गयी आंदोलनकारियों ने हाल में घुस कर ठेकेदारों को चेताया की वे बोली न बोलें क्योंकि हेंवल घाटी के लोग पेड़ नहीं कटने देंगे और चिपको आंदोलन चलाएंगे। इसका असर यह हुआ कि उदखंडा के सबसे बड़े लौट की बोली किसी ने नहीं बोली लेकिन अद्वाणी और सलेत के जंगल की नीलामी हो गयी।

वन सुरक्षा समिति ने 18 अक्तूबर को जाजल में सभा कर मुख्यमंत्री और वन मंत्री से नीलामी निरस्त करने का अनुरोध किया। इस बीच भारत के दौरे पर आए वृक्ष मानव रिचर्ड सेंट बार्वे बेकर ने अद्वाणी के जंगल जाकर एक पौधा रोपा और ग्रामीणों की मांग का समर्थन किया। नीलामी के 40 दिन बाद ठेकेदार को पेड़ काटने के लिए आदेश मिल गया। वन विभाग की ओर से ग्रामीणों को धमकी दी गयी कि यदि उन्होंने पेड़ नहीं कटने दिए तो उन्हें मिलने वाली फ्री ग्रांट लकड़ी नहीं दी जाएगी साथ ही जंगल से घास लकड़ी भी नहीं निकालने दी जाएगी। ठेकेदार ने भी जंगल चारा लेने गयी महिलाओं को डराने की कोशिश की कि यदि कोई पेड़ पर चिपकेगा तो उसकी पीठ पर आरा चला दिया जाएगा। 4 दिसंबर से अद्वाणी के जंगल में चिपको आंदोलन का शिविर शुरू हो गया। वहां धूम सिंह नेगी उपवास पर बैठ गए। 8 दिसंबर को महिलाओं ने काटने के लिए अंकित पेड़ों का रक्षाबंधन कर धूम सिंह नेगी से कहा कि वे अपना उपवास तोड़ दें। पेड़ों की रक्षा वे करेंगी। सुंदर लाल बहुगुणा ने नेगी का उपवास तुड़वाया। 13 दिसंबर से जंगल में ही भागवत कथा प्रचन शुरू कर दिया गया। 20 दिसंबर को कथा के समापन के अवसर पर आस-पास के गांवों के लोगों के अलावा जाजल और गजा इंटर कालेज के छात्र भी वहां पहुचे। लोगों ने संकल्प लिया कि वे कच्ची लकड़ी नहीं काटेंगे और अपनी आवश्यकता से अधिक लकड़ी नहीं ले जायेंगे। सुंदर लाल बहुगुणा ने कहा कि जंगलों की असली देन मिट्टी पानी और आक्सीजन है। उन्होंने नारा दियाः- क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी पानी और बयार। सभा को प्रताप शिखर, रामराज बडोनी, कुंवर प्रसून, सोबन सिंह, दयाल सिंह नेगी और दयाल सिंह भंडारी के अलावा 14 वर्षीय जगदंबा कोठियाल ने  भी संबोधित किया। 

उधर आंदोलन का केंद्र अद्वाणी जानकर ठेकेदार ने 15 किमी दूर सलेत में पेड़ कटवाना शुरू कर दिया। ग्रामीणों को जैसे ही इस बात का पता चला वे ढोल-बाजों के साथ जुलूस लेकर वहां पहुंच गए और पेड़ काटने वाले श्रमिकों को वहां से खदेड़ दिया। ठेेकेदार ने ग्रामीणों के खिलाफ नरेंद्रनगर थाने में रिपोर्ट लिखवा दी। 26 दिसंबर को पुलिस ने आंदोलनकारियों को शांति भंग के नोटिस थमा दिए। 2 जनवरी 1978 को डीएफओ ग्रामीणों को समझाने वहां पहुंचे तो ग्रामीणों ने भरी दोपहरी में उनका स्वागत जलती लालटेनों से किया। कहा कि यह लालटेनें अनाड़ी वन विज्ञान को रास्ता दिखाने के लिए हैं। इस मौके पर बचनी देई की अध्यक्षता में हुई सभा में ग्रामीणों ने अपने सवालों से डीएफओ को निरुत्तर कर दिया। सभा में 14 साल के  जगदम्बा कोठियाल से लेकर 82 वर्षीय रघुनाथ सिंह तक थे। ग्रामीण नारे लगा रहे थे:-

 क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी पानी और बयार, मिट्टी पानी और बयार, जिंदा रहने के आधार।

 भले कुल्हाड़े चमकेंगे, हम पेड़ों पर चिपकेंगे, पेड़ों पर हथियार उठेंगे, हम भी उनके साथ कटेंगे।

डीएफओ वापस लौटे तो ठेकेदार ने सलेत के जंगल में  मजदूर उतार दिए। सूचना मिलते ही ग्रामीण बड़ी संख्या में नारेबाजी करते हुए जंगल पहुंचे तो मजदूर झाड़ियों में छिप गए पर लोंगों के वापस लौटते ही फिर पेड़ काटने लगे। जंगल में तब धूम सिंह नेगी और हुकुम सिंह ही थे। कुछ देर तक धूम सिंह नेगी और हुकुम सिंह पेड़ों से चिपक कर उन्हें कुल्हाड़ियों के प्रहार से बचाते रहे। फिर बकौल हुकुम सिंह उन्हें डराने के लिए मजदूरों ने आरा उसकी पीठ पर लगा दिया। जब वह नहीं हटा तो मजदूर यह कहते हुए हट गए कि हम इनसान को काटने नहीं आए हैं। धूम सिंह नेगी जी के अनुसार उन्होंने हुकुम सिंह को लोगों को बुलाने भेज दिया और खुद पेड़ों पर चिपक कर उन्हें कटने से बचाने का प्रयास करने लगे। एक पेड़ से दूसरे पेड़ की दौड़ लगाते-लगाते थक कर वे एक पेड़ के नीचे बैठ गए और गीता पाठ करने लगे। रात में बड़ी संख्या में ग्रामीण भी जंगल में पहुंच गए। 12 जनवरी को पेड़ों को बचाने के लिए जाजल में महिलाओं का सम्मेलन हुआ। इस बीच विधायक इंद्रमणि बडोनी ने भी आंदोलन के समर्थन में अपना वक्तव्य जारी कर दिया।

दूसरी ओर अद्वाणी में ठेकेदार ने अब गांव के ही 3 लोगों को ज्यादा मजदूरी और शराब पिलाकर अपने साथ पेड़ काटने के लिए राजी कर लिया। ठेकेदार थानेदार और पुलिस को लेकर 17 जनवरी को पेड़ काटने अद्वाणी के जंगल में पहुंच गया। उस समय लोग गांव गए हुए थे और निगरानी के लिए जंगल में रामराज बडोनी, जीवानंद श्रीयाल और दयाल भाई थे। पेड़ कटान शुरू हुआ तो मौके पर मौजूद रामराज और दयाल भाई उन्हें बचाने के लिए पेड़ों से चिपकने लगे। पेड़ बचाने वाले दो ही थे और काटने वाले गांव के 3 श्रमिकों के साथ कई। ऐसे में जब तक गांव से लोग जुलूस लेकर जंगल पहुंचे तब तक 12 पेड़ कट गए थे। जुलूस को देखकर पेड़ काटने वाले वहां से चले गए। महिलाओं चंद रुपयों के लिए पेड़ काटने के लिए राजी हुए अपने गांव के तीन लोगों को धिक्कारा। उधर एक श्रमिक जोत सिंह के 13 वर्षीय बेटे कुंवर सिंह ने तो खाना ही छोड़ दिया और जब उसके पिता ने आश्वासन दिया कि अब वह पेड़ नहीं काटेगा तभी उसने खाना खाया। 

उधर उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ में वन मंत्री ने पर्वतीय विधायकों और सांसदों की बैठक बुलाई और प्रस्ताव पारित करवा दिया कि वैज्ञानिक तरीके से पेड़ों का कटान होता रहे। इससे वन विभाग और ठेकेदार के हौसले बढ़ गए। ऐसे में हेंवल घाटी के लोगों ने 26 जनवरी को वन अधिकार दिवस मनाया। रात में गांव में थालियां बजाकर जागरण किया गया। 28 जनवरी को युवाआंे ने कंटर बजाकर भाज-भाज रे भाज के नारे के साथ जुलूस निकाला। 31 जनवरी को ठेकेदार 20 नेपाली मजदूरों को लेकर पहुंच गया। उसकी मदद के लिए बेमुंडा में दो ट्रक भर कर पीएसी भी पहुंच गई। पीएसी ने लोगों को डराने के लिए बेमुंडा से चिड़ियाली तक फ्लैग मार्च किया। अगले दिन 1 फरवरी को एसडीएम और डीएफओ पीएसी को लेकर ठेकेदार की मदद के लिए अद्वाणी के जंगल में पहुंच गए। ठेकेदार ने मजदूरों से पेड़ कटान शुरू करने को कहा। इतने में कई महिलाएं और पुरुष पेड़ों को कटने से बचाने के लिए उनसे लिपट गए। वे नारे लगा रहे थे- पेड़ों पर हथियार चलेंगे, हम भी उनके साथ कटेंगे। पेड़ कटवाने वालों में शामिल अद्वाणी के बख्तवार सिंह की पत्नी बचनी देवी भी अन्य महिलाओं और पुरुषों के साथ पेड़ों पर चिपक गयी।दो घंटे तक यह सब चलता रहा और श्रमिक एक भी पेड़ नहीं गिरा सके। ऐसे में ठेकेदार अपने मजदूरों को लेकर लौट गया और पीएसी भी वापस चली गयी। इसके बाद 4 फरवरी को पांच आंदोलनकारियों रामराज बडोनी, दयाल सिंह, कुंवर प्रसून, जीवानंद श्रीयाल और धूम सिंह नेगी को नरेंद्रनगर मजिस्ट्रेट की ओर से नोटस जारी किए गए कि उन्होंने अपने साथियों के साथ ठेकेदार के पेड़ों से चिपक कर उन्हें कटने नहीं दिया। 

उधर 9 फरवरी को नरेंद्रनगर में एक बार फिर से पेड़ो की नीलामी रख दी गई। इसके विरोध में हेंवलघाटी से आंदोलनकारी ढोलबाजों के साथ पैदल ही नरेंद्रनगर चल दिए। रात भर वे नीलामी हाल के बाहर धरना देते रहे। वहां पुलिस का सशस्त्र पहरा था। पुलिस ने उन्हें वहां से हटाया तो वे सामने सड़क पर बैठ गए। बकौल सुदेशा बहान 9 फरवरी को घूम सिंह नेगी महिलाओं को लेने हेंवलघाटी आए और वहां से काफी संख्या में महिलाएं बस में बैठकर नीलामी स्थल पहुंच गयीं। वहां रामराज बडोनी और कुंवर प्रसून पुलिस जवानों के बंदूकों की बटों को सहते हुए जबरन नीलामी हाल में घुसने की कोशिश कर रहे थे। महिलाएं पहुंची तो उनका उत्साह बढ़ गया। उनके साथ-साथ सब लोग नीलामी हाॅल में घुस गए। वे उस टेबुल पर चढ़ गए जिससे नीलामी हो रही थी। रात में उन्हें गिरफ्तार किया जाने लगा तो कुंवर प्रसून ने कहा कि उन्हे गिरफ्तार करना है तो हथकड़ियां पहनाओ। प्रसून की जिद पर पुलिस ने एक हथकड़ी से रामराज और कुंवर प्रसून को बांधा। 

पुलिस ने नौ महिलाओं और 14 पुरुषों की सूची बनाई। गिरफ्तार होने वालों में देहरादून के कामरेड आलोक उपाध्याय और चैंपा में कार्यरत पौड़ी निवासी शिक्षिका जानकी देवी भी थे। । अगले दिन तड़के 5 बजे उन्हें टिहरी जेल में पहुंचाया गया। आलोक उपाध्याय जमानत पर जेल से बाहर आ गए। बाकी 22 लोगों को 14 दिन बाद जब मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया गया तो उन्होंने कहा उन्होेने पेड़ कटने से बचाकर कोई अपराध नहीं किया है। मजिस्ट्रेट ने उन सभी को रिहा कर दिया।

क्रमशः









बहुगुणा जी की डायरी से
 




 


 

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