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चीड़, सफेदा, पौपलर नहीं लगेगा, धरती मां के दुश्मन हैं


सिंहुता में प्रदर्शनकारियों को संबोधित करते हुए कृष्णमेट



 

बहुगुणा जी की डायरी से


हरे पेड़ों की कटाई पर रोक के बाद वृक्षारोपण पर दिया जोर, फाइव एफ ट्री का दिया नारा

हिमाचल में नर्सरियों से सफेदा और चीड़ के पौधे उखाड़े, उपमन्यु समेत तीन लोग गए जेल
विदेशी प्रजाति के प्रकृति के लिए घातक पौधे लगाने का किया विरोध, उनकी जगह पंच जीवन पौधे रोपे

कोयले की भट्टियां उजाड़ी कहा, सूखी लकड़ी पर पर पहला हक स्थानीय लोगों का सिल्यारा में वन विभाग के दफ्तर पर महिलाओं ने दिन में छिलके जलकर किया प्रदर्शन

हरे पेड़ों के कटान पर रोक के बाद सुंदर लाल बहुगुणा ने वृक्षारोपण पर ध्यान केंद्रित किया। अपनी लंबी यात्राओं से उन्हें प्राकृतिक वनों में एकल प्रजाति के पौधे लगाने  और खासकर चीड़, पौपलर और सफेदा (यूकेलिप्टिस) से धरती को पहुंचने वाले नुकसान का व्यावहारिक ज्ञान हो गया था। एकल प्रजाति के और विदेशी पौधे लगाने का विरोध करते हुए उन्होंने स्थानीय लोगों की जरूरत के मुताबिक खाद्य,चारा,खाद,रेशा और जलाऊ लकडी प्रदान करने वाले पारंपरिक पंच जीवन पौधे ही लगाने की बात कही। इसके लिए उन्होंने फाइव एफ ट्री(फूड, फौडर, फर्टीलाइजर, फाइवर,फ्यूल वुड)  का नारा दिया। उन्होंने सूखे पेड़ और लकड़ी स्थानीय लोगों को देने की भी मांग की। उनके इस नए कदम को ग्रामीणों का जबर्दस्त समर्थन मिला।

बडियारगढ़ में सुंदर लाल बहुगुणा के उपवास के बाद वन अधिनियम के तहत 1000 मीटर से ऊपर हरे पेड़ों के कटान पर रोक का आदेश तो जारी हो गया लेकिन वन कटान पर प्रभावी रोक नहीं लगी। इससे दुखी होकर उन्होंने पद्मश्री लेने से इनकार कर दिया। ऐसे में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कड़े रुख के बाद उत्तर प्रदेश के पहाड़ी इलाकों में भी हरे पेड़ों का कटान बंद हो गया। अब वन विभाग वन अधिनियम की आड़ में ग्रामीणों को जंगल से सूखी लकड़ी लेने से भी रोकने लगा। यही नहीं प्राकृतिक वनों में चीड़, यूकेलिप्टिस (सफेदा), पौपलर और सिल्वर ओक जैसे धरती को नुकसान पहुंचाने वाले व्यापारिक पौधे लगाए जाने लगे इसके लिए वन विभाग ने बड़े पैमाने पर इनकी नर्सरियां तैयार कर लीं। वन विभाग की इस नीति का चिपको नेता से प्रेरणा लेकर लोगों ने जमकर विरोध किया।

सिल्यारा में जुपली देवी के नेतृत्व में भरी दोपहरी में महिलाएं छिलके (चीड़ की तेज जलने वाली लकड़ी) जलाकर चमियला रेंज कार्यालय में गए। जुलूस में सुंदर लाल बहुगुणा भी साथ में थे। उनका कहना था कि वन विभाग के अधिकारियों की आंख पर पड़े पर्दे को हटाने के लिए वे दिन में रोशनी के साथ आए हैं। दरअसल टिहरी-उत्तरकाशी में 1930 में तिलाड़ी में हुए आंदोलन के बाद राजशाही के जमाने से ग्रामीणों को मकान बनाने के लिए निशुल्क और रियायती लकड़ी( पीडी, रमाना) दी जाती थी। इसके ऐवज में ग्रामीण वन संरक्षण और खासकर जंगल की आग बुझाने में वन कर्मियों की मदद करते थे। वन अधिनियम की आड़ में विभाग ने लकड़ी देना बंद कर दिया था।

ग्रामीणों के आक्रोश को देखते हुए वन विभाग ने पीडी, रमाना देना फिर से शुरू कर दिया। उधर हिमाचल के सिंहुता में वर्ष जनवरी 1982 में ठेकेदार को दी गयी सूखी लकड़ी ग्रामीणों ने विरोध स्वरूप उठा ली। 70 वर्षीय बुजुर्ग डलकू राम ने चीड़ और सफेदा को पानी सोखने और मिट्टी की उर्वरकता खत्म करने वाला बताते हुए उनके रोपण का विरोध करने का आह्वान किया। कुलभूषण उपमन्यु के नेतृत्व में ग्रामीणों ने जगह-जगह वन विभाग की नर्सरियों से सफेदा और चीड़ के पौधे उखाड़ कर उनकी जगह पंच जीवन पौधे रोप दिए। इसके लिए कामला में ग्रामीणों ने अपनी नर्सरी तैयार की। मुख्य अरण्यपाल तक भी लोगों ने गलत पौधों के रोपण के विरोध की बात पहुंचायी। वर्ष 1983 में यह आंदोलन हिमाचल के भटियात में फैल गया। सिंहुता में 23 अप्रैल से ग्रामीणों ने क्रमिक अनशन शुरू कर दिया। 

ग्रामीणों ने नारा दिया - चीड़ सफेदा बंद करो, चारे का प्रबंध करो। 

स्थानीय विधायक और हिमाचल सरकार के तत्कालीन मंत्री शिव कुमार डलहौजी के डीएफओ को लेकर आए और उन्होंने आश्वासन दिया कि अब सफेदा के पौधे नहीं लगेंगे लेकिन इस पर अमल नहीं हुआ। इस पर धरवाई गांव से शुरू होकर सफेदे के पौधे उखाड़कर उनकी जगह पंच जीवन पौधे लगाने का आंदोलन हिमांचल प्रदेश के पूरे भटियात में फैल गया। धरवाई गांव में अगस्त 83 में ग्रामीणों ने बड़ी संख्या में चीड़ और सफेदा के पौधे उखाड़ कर उनकी जगह पंच जीवन पौधे लगा दिए। मार्च 84 तक यह आंदोलन डेढ़ दर्जन से अधिक ग्राम पंचायतों में फैल गया। 15 मार्च को टुण्डी में वन विभाग ने 43 ग्रामीणों के खिलाफ नर्सरी से पौधे उखाड़ने का केस दर्ज कर दिया। 22 मार्च 1984 को आंदोलन के तीन प्रतिनिधि तत्कालीन सीएम वीरभद्र सिंह से मिले। उन्होंने गांवों के आसपास केवल फल, चारा और ईंधन देने वाले पौधे ही लगाने और सफेदा लगाने पर प्रतिबंध के आदेश जारी किए। साथ ही बाँज और बुराँश को संरक्षित प्रजाति घोषित कर दिया गया। पौधे उखाडने के आंदोलन के बाद हिमाचल में जंगलों से कोयला बनाने की भट्ठियां उजाड़ने का आंदोलन शुरू हुआ। इसके लिए निघोघ, सुरपडा,खोला, जसूर, समोट, मंझोई, भटका आदि  गांवों में बैठकें हुई। ग्रामीण इस बात से नाराज थे कि उन्हें तो लकड़ियां नहीं दी जातीं जबकि ठेकेदारों को कोयला बनाने के लिए बड़ी संख्या में पेड़ दिए गए हैं और उन्होंने कोयला बनाने के लिए जंगलों में भट्टियां भी बना ली हैं।1985 में रूपेना में भट्टियां उजाड़ने की शुरुआत हुई फिर फरवरी 1986 में मनुहता व दिसंबर 86 में तलाई के जंगल में भट्टियां उजाड़ी गई। ग्रामीणों  का आन्दोलन रंग लाया और वन विभाग ने उनकी जरूरतों के सूखे पेड़ देने शुरू  किए। दूसरी ओर फरवरी 1988 में सिंहुता नर्सरी से पौधे उखाड़ने के आरोप में कुलभूषण उपमन्यु समेत 4 लोगों पर वन विभाग ने मुकदमा दर्ज कर दिया।  

12 सितंबर को कोर्ट में जमानत लेने से इनकार करने पर कुलभूषण, डलकु राम और भूरु राम को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। इनके गिरफ्तार होने पर जड़ेरा के ग्राम प्रधान रतन चंद ने ग्रामीणों को प्रेरित कर गिरफ्तारियों के विरोध में प्रदर्शन किए। वे जुलूस लेकर चंबा जाते और वहां सभा और प्रदर्शन करते। इसमें उन्हें स्कूली लड़कों का भी जमकर सहयोग मिला। एक बार गुस्साए लड़कों ने  जेल पर पथराव की बात तक कर डाली लेकिन रतन चंद ने उन्हें समझा बुझा कर शंत कर दिया। इस दौरान सुंदर लाल बहुगुणा के अलावा शिमला से रघुवीर सिंह पिर्ता और कर्नाटक से एपिक्को आन्दोलन के पांडुरंग हेगड़े ने गिरफ्तारियों का विरोध कर सरकार पर दबाव बनाया। गिरफ्तारियों के खिलाफ जनता के भारी आक्रोश को देखते हुए मुकदमा पंचायत को हस्तांतरित कर दिया गया और पंचायत ने 30 अक्तूबर 88 को तीनों को रिहा कर दिया।

उधर सिल्यारा में दिसंबर 86 में लड़कों ने पौपलर के पौधे उखाड़कर फेंक दिए तो 16 जुलाई को पौधे लगा रहीं महिलाओं ने वन विभाग से लगाने के लिए आए सिल्वर ओक के पौधे वापिस लौटा दिए। महिलाओं ने वहाँ बाँज, बांस, रिंगाल और गुरयॉल के पौधे लगाए।


 


सिंहुता में प्रदर्शनकारियों को संबोधित करते हुए ओंकार सिंह




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