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सुंदर लाल बहुगुणा का जन्म टिहरी से 7 मील दूर भागीरथी नदी के पास बसे गांव में मरोड़ा में 9 जनवरी 1927 को हुआ। उनके पिता अम्बादत्त बहुगुणा टिहरी रियासत में वन अधिकारी थे तो नाना अभय राम डोभाल राजभक्त जमीदार। लेकिन गांधी जी के शिष्य श्रीदेव सुमन ने टिहरी राजशाही के भक्त परिवार में जन्मे सुदर लाल के जीवन की दिशा ही बदल दी। वह तब महज 13 साल के थे जब टिहरी में श्रीदेव सुमन के संपर्क में आए।
अन्य बच्चों के साथ सुंदर लाल भी मैदान
जमनालाल बहुगुणा सम्मान ग्रहण करते सुंदर लाल बहुगुणा

सिल्यारा आश्रम की पनचक्की का संचालन करते सुंदर लाल बहुगुणा



सिल्यारा में 1957 में अपनी कुटिया में सुंदर लाल बहुगुणा और आश्रमवासी

लायलपुर (लाहौर) में 1945-46 में सरदार मान सिंह के रूप में सुंदर लाल बहुगुणा

में खेल रहे थे। अचानक एक अजनबी युवक वहां आया। उसने खादी का कुर्ता टोपी और धोती पहनी थी। उसके पास एक संदूकची थी। बच्चों ने कौतूहलवश युवक से पूछा कि संदूकची में क्या है तो उसने संदूकची खोली और पेड़ की छांव में बैठकर चरखे पर सूत कातने लगा। सुमन ने कहा कि यह गांधी जी का चरखा है। इससे हम अपने कपड़े खुद बनाएंगे और अंग्रेजों को हिन्दुस्तान छोड़ कर जाने को मजबूर कर देंगे। सुमन ने बच्चों से पूछा पढ़ लिख कर तुम क्या करोगे ? जवाब मिला राजदरबार की सेवा। सुमन ने कहा फिर जनता की सेवा कौन करेगा ? क्या तुम चंद चांदी के टुकड़ों में खुद को बेच दोगे ? इस सवाल ने किशोर सुंदर लाल को अंदर तक झकझोर दिया। सुमन ने कुछ पुस्तकें भी निकालीं। दूध के लिए मां से मिले पैसे से सुंदरलाल ने  गांधी जी की लिखी हिंद स्वराज और प्रिंस क्रोपटकिन की अपील टू दि यंग पुस्तकें खरीद लीं। दोनों पुस्तकों को पढ़ने के बाद किशोर सुंदर लाल श्रीदेव सुमन का भक्त बन गया। यह श्रीदेव सुमन वही थे जिनके बलिदान ने टिहरी रियासत को राजशाही के चंगुल से मुक्त कराया। श्रीदेव सुमन की मृत्यु टिहरी रियासत की जेल में 84 दिन के ऐतिहासिक अनशन के बाद हुई थी। तब सुंदर लाल के पिता का देहांत हो चुका था। घर में जब पता चला कि सुंदरलाल राजशाही के खिलाफ बगावती का साथ दे रहा है तो सबने उनको खूब भला बुरा कहा। पर धुन के पक्के सुंदरलाल अपनी राह पर आगे बढ़ते चला गया।
बालक सुंदरलाल टिहरी में पढ़ाई के दौरान छिपकर श्रीदेव सुमन से मिलने लगा। इस दौरान वर्ष 1944 में टिहरी जेल में बंद श्रीदेव सुमन ने जेल के अंदर ही लगी कोर्ट में दिए बयान को सुंदरलाल तक पहुंचाया तो उन्होंने उसे किसी तरह दिल्ली भिजवा कर अखबारों में छपवा दिया। श्रीदेव सुमन का बयान छपते ही राजशाही की पुलिस ने सुंदरलाल को हिरासत में ले लिया। सुंदरलाल पढ़ाई में कुशाग्र थे।टिहरी के प्रताप इंटर कॉलेज के प्रधानाचार्य ने राजा को दलील दी कि सुंदरलाल के परीक्षा न देने से राजदरबार के रिजल्ट पर असर पड़ेगा। ऐसे में पुलिस हिरासत में ही सुंदर लाल ने परीक्षा दी और परीक्षा के बाद उसे नरेंद्रनगर की हवालत में डाल दिया गया। हवालत से गंभीर हालत में डाक्टर के कहने पर मुक्त हुए और फिर पढ़ाई के लिए लाहौर चले गए। स्वस्थ होते ही टिहरी रियासत की पुलिस लाहौर भी सुंदर लाल को ढूंढ़ने पहुंच गयी तो सुंदरलाल 19 जून 1945 में वहां से भाग कर दूरस्थ एक गांव लायलपुर पहुंच गए और वहां एक साल तक सरदार मान सिंह बन कर रहे। जून 1947 में लाहौर से प्रथम श्रेणी में बीए आनर्स कर कर टिहरी लौटे तो फिर टिहरी रियासत के खिलाफ बनी प्रजामंडल में सक्रिय हो गए। इस बीच 14 जनवरी 1948 को टिहरी की जनता ने राजशाही का तख्ता पलट दिया ओर वहां प्रजामंडल की सरकार बनी। उसमें सुंदर लाल प्रचार मंत्री बने ओर बाद में टिहरी कांग्रेस के महामंत्री। इसी दौरान 29 जनवरी 1948 को दिल्ली में सुंदरलाल ने महत्मा गांधी से मिलकर उन्हें टिहरी को राजशाही से मुक्त कराने की कहानी सुनाई तो महात्मा गांधी ने उनकी पीठ थपथपते हुए कहा कि ‘शाबाश तुम हिमालय में जितनी ऊंचाई पर रहते हो तुमने उतना ही ऊंचा काम किया है’ ’ मेरी अहिंसा को हिमालय पर भी उतार दिया।
युवा सुंदरलाल के जीवन में एक अहम मोड़ तब आया जब 1955 में गांधी जी की अंग्रेज शिष्या सरला बहन के कौसानी आश्रम में पढ़़ी विमला नौटियाल ने उनसे शादी के लिए राजनीति छोड़ने और सुदूर किसी पिछड़े गांव में बसने की शर्त रखी। सुंदरलाल ने शर्त मान ली और टिहरी से 22 मील दूर पैदल चल कर सिल्यारा गांव में झोपड़ी डाल दी। 19 जून 1956 को वहीं विमला नौटियाल से शादी की। झोपड़ी में शुरू की गई पर्वतीय नव जीवन मंडल संस्था गांधी जी के अहिंसा के प्रयोग का केंद्र बनी। यहां से कई गांधी वादी कार्यकर्ता निकले। यहीं से सुंदर लाल बहुगुणा ने पहले अस्पृश्यता निवारण (मंदिर में हरिजन प्रवेश), शराबबंदी और फिर चिपको आंदोलन चलाया। यहीं से उत्तराखंड के कई गांधीवादी कार्यकर्ताओं का निर्माण हुआ। इनमें धूम सिंह नेगी, घनश्याम सैलानी, चंडी प्रसाद भट्ट, धर्मानंद नौटियाल, सुरेंद्र दत्त भट्ट, भवनी भाई, कुंवर प्रसून, विजय जड़धारी, प्रताप शिखर और पांडुरंग हेगड़े प्रमुख हैं। इन्होंने बाद में सुंदर लाल बहुगुणा के साथ  और स्वतंत्र रूप से भी कई आंदोलन चलाए। पांडुरंग हेगड़े जो सिल्यारा में एमएसडब्लू का फील्ड वर्क करने आए थे सुंदरलाल बहुगुणा के दर्शन से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने कर्नाटक में पेड़ों को बचाने का अप्पिको आंदोलन छेड़ दिया। सुंदरलाल बहुगुणा ने शराबबंदी, चिपको और टिहरी बांध विरोधी आंदोलन के दौरान सुंदरलाल बहुगुणा ने लंबे उपवास भी किए। इनमें टिहरी बांध के खिलाफ 74 दिन का उपवास भी शामिल है।
बहुगुणा दंपति ने सिल्यारा आश्रम को गांधीजी के ग्राम स्वराज की प्रयोगशाला बना डाला। तब लड़िकयों को पढ़ाने की परंपरा नहीं थी। उन्होंने आश्रम में बालिकाओं के लिए आवसीय स्कूल खोला। इसमें उन्हें पढ़ाई के अलावा सामान्य कामकाज व सिलाई, कताई, बुनाई भी सिखाई जाती। यही नहीं वे शाम को गांव में जाकर महिलाओं को भी उनके घरों में जाकर पढ़ाने लगे। महिलाओं के सहयोग से गांव में शराबबंदी भी की। इसी साल बूढ़ाकेदार मंदिर में हरिजनों का प्रवेश भी कराया। विरोध में सवर्णों ने उनकी टोली को जूते चप्पलों तक से पीटा। बाद में टिहरी में जगह-जगह सरकारी राजस्व के लिए खोली गई शराब की दुकानों को भी बंद कराया। 1971 में सुंदरलाल बहुगुणा ने शराब की दुकान के बाहर भूखहड़ताल की। पुलिस ने सैकड़ों की संख्या में इनके समर्थकों को सुदूर बरेली, सहारनपुर और देहरादून की जेलों में ठूंस दिया। जेल जाने वालों में सुंदर लाल बहुगुणा की पत्नी विमला और 6 साल का बेटा प्रदीप भी थे जिसका बाकयदा अलग से वारंट बनाया गया था। यह तब खासी चर्चा का विषय बना कि उत्तरप्रदेश की सरकार 6 साल के के बच्चे से भी डरती है। बहुगुणा के समर्थकों के बड़ी संख्या में जेल भेजने से आंदोलन पूरे पहाड़ में फैल गया और सरकार को पहाड़ में शराब पर प्रतिबंध लगाना पड़ा। बाद में पहले वनों पर स्थानीय लोगों के हक को लेकर पूरे उत्तराखंड में जागरूकता यात्रा निकाली। इसीसे वर्ष 1974 में प्रसिद्ध चिपको आंदोलन का उदय हुआ। वन अधिकारों को लेकर शुरू हुआ चिपको आंदोलन बाद में ‘क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी पानी और बयार, मिट्टी पानी और बयार, जिंदा रहने के आधार’ नारे के साथ पूरे विश्व में प्रसिद्ध हो गया। बहुगुणा का मानना है कि वनों की मुख्य उपज प्राणवायु(आक्सीजन) है। कहते हैं कि ‘इकोलोजी इज द परमानेंट इकोनोमी’। बहुगुणा को केंद्र सरकार ने वनों के प्रति जागरूकता जगाने के लिए वर्ष 1981 में पद्मश्री देने की घोषणा की लेकिन उन्होंने उसे विनम्रता पूर्वक यह कहते हुए लेने से इनकार कर दिया कि जब तक वृक्षों की कटाई पर रोक नहीं लगती इसे लेने का कोई औचित्य नहीं है। बाद में केंद्र सरकार ने समुद्रतल से 1000 मीटर से ऊंचाई वाले इलाकों में वृक्ष कटान पर पूरी तरह से रोक लगा दी।
वैज्ञानिको की चेतावनी के बाद बनाए जा रहे भीमकाय टिहरी बांध के विरोध के विरोध में 1986 से सक्रिय हुए और उन्होंने 24 नवंबर 1989 में अपना सिल्यारा का आश्रम भी छोड़ दिया और भागीरथी के तट पर बांध स्थल पर अपना तंबू तान दिया। उनके आंदोलन को व्यापक समर्थन मिला एक बार पुलिस ने बहुगुणा समेत उनके कई समर्थकों को जेलों में ठूंस दिया लेकिन आखिर में उन्हें सशर्त रिहा करना पड़ा।

बहुगुणा का कहना था कि अपने आंदोलनों के दौरान उन्हें उपेक्षा, अलगाव और अपमान का लगातार सामना करना पड़ा। लेकिन मैं इनसे टूटा और घबराया नहीं बल्कि गांधीजी के संघर्ष को याद करके और मजबूत हुआ। मुझे पूरा विश्वास था कि गांधी के रास्ते पर चलकर अहिंसक ढंग से जनशक्ति के माध्यम से हम सफल होंगे। इसी विश्वास से शराबबंदी और पेड़ों को बचाने का चिपको आंदोलन सफल हुआ। इस दौरान मुझे गांधी और उनके अनुयायी विनोबा के आशीर्वाद और अहिंसक प्रतिवाद के प्रति उनकी निष्ठा ही बल देती रही। समर्पित जागरूक कार्यकर्ताओं की टीम ने भी आंदोलनों की सफलता में अहम भूमिका निभाई।

बहुगुणा का मनाना था कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है और गांव के विकास के बिना देश की तरक्की संभव नहीं है। अंधाधुध शहरीकरण से  देश विनाश की ओर जाएगा। व्यक्ति को शांति चाहिए और शांति और भाईचारे का माहौल गांवों में ही है। ग्राम स्वराज के गांधीवदी आदर्श के साथ राजनीतिक हस्तक्षेप को में गलत मानता हूं। आज शक्ति के केंद्र नगरों और सरकारों में केंद्रित हो गए हैं यह व्यवस्था पर आमआदमी का विश्वास समाप्त कर रहा है। उनका कहना है कि यह देश का दुर्भागय है कि गांधी के देश में उनके आदर्श खतरे में हैं। नफरत फैलाने की लहर मुझे दर्द तो देती है लेकिन अधिक गहरााई से कार्य और चिंतन करने को प्रेरित करती है। अपने संदेश को जन-जन तक पहुंचाने के लिए उन्होंने पहले उत्तराखंड को पैदल नापा फिर काश्मीर से कोहिमा तक की यात्रा की और गंगा संरक्षण के लिए गंगा सागर से लेकर गोमुख तक की साइकिल यात्रा निकाली।
बहुगुणा के कार्य को पूरे विश्व में मान्यता मिली। इन्हें पर्यावरण पर संयुक्त राष्ट्र संघ प्रतिनिधि सभा को संबोधित करने का मौका मिला। अमेरिका, जापान, कनाडा, फ्रांस, जर्मनी इंगलैंड, आ्ट्रिरया समेत सभी प्रमुख देशों में चिपको का संदेश फैलाने के लिए घूमे। बीबीसी ने इन पर ‘एक्सिंग द हिमालय’ फिल्म बनाई।
सुंदर लाल बहुगुणा को मिले पुरस्कार और सम्मान
वर्ष 1981 पद्मश्री ( इसे बहुगुणा ने नहीं लिया )
वर्ष 1986 जमनालाल बजाज पुरस्कार
वर्ष 1987 राइट लाइवलीहुड अवार्ड
वर्ष 1989 आईआईटी रुड़की द्वारा डीएससी की मानद उपाधि
वर्ष 2009 पद्मविभूषण इसके अलावा राष्ट्रीय एकता पुरस्कार, शेरे कश्मीर अवार्ड समेत दर्जनों अन्य छोटे बड़ पुरस्कार भी इन्हें दिए गए। विश्वभारती विवि शांतिनिकेतन ने भी इन्हें डाकटरेट की मानद उपाधि प्रदान की।
सुंदर लाल बहुगुणा पर प्रमुख पुस्तकें
इकोलोजी इज द परमानेंट इकोनोमी ले: जार्ज जेम्स टेक्सास विवि
हिमालय में महात्मा गांधी के सिपाही सुंदर लाल बहुगुणा: केएस वाल्दिया
फारेस्ट एंड पीपुल्स : भारत डोगरा
धरती करे पुकार : राजकमल प्रकाशन
सुंदर लाल बहुगुणा

सुंदर लाल बहुगुणा की धर्मपत्नी श्रीमती विमला बहुगुणा

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