समाजसेवा का व्यावहारिक प्रशिक्षण लेने आए पांडुरंग बने बहुगुणा के शार्गिद
पांडुरंग ने आंदोलन छेड़ सरकार को वन नीति बदलने को किया मजबूर
उत्तराखंड और हिमाचल के बाद हरे पेड़ों को बचाने का आंदोलन दक्षिण भारत के कर्नाटक में भी शुरू हो गया।
पांडुरंग हेगड़े के नेतृत्व में सिरसी के ग्रामीण पेड़ों को कटने से बचाने के लिए
उनसे चिपक गए। कन्नड़ में आंदोलन को नाम दिया गया अप्पिको। आंदोलन का असर इतना
व्यापक था कि सरकार को हरे पेड़ों के कटान पर रोक के साथ ही अपनी वन नीति में बदलाव
को भी मजबूर होना पड़ा। दिल्ली विश्वविद्यालय से 80 के दशक में बहुगुणा से समाजसेवा
का व्यावहारिक प्रशिक्षण लेने आए एमएसडब्लू के होनहार छात्र पांडुरंग, बहुगुणा से
इस कदर प्रभावित हुए कि उन्होंने नौकरी की बजाय अपना जीवन भी उनकी तरह ही प्रकृति
संरक्षण के लिए समर्पित करने का निश्चय कर लिया। पांडुरंग पर्यावरण संरक्षण का
संदेश फैलाने के लिए बहुगुणा की कश्मीर-कोहिमा पदयात्रा में शामिल हुए। यात्रा के
बाद पांडुरंग ने बहुगुणा को अपने यहां आने का न्योता भेजा। बताया कि उनके यहां भी
सरकार व्यापारिक प्रजाति के पेड़ पनपाने के लिए प्राकृतिक वनों का सफाया कर रही है।
दरअसल उत्तर कन्नड़ जिले के सिरसी तालुका के बिलगाल क्षेत्र के प्राकृतिक वनों को
काटकर सागौन के बागान लगाने की सरकार की योजना थी।युवक मण्डल के विश्वनाथ और महाबलेश्वर हेगड़े ने इसका विरोध करते हुए वन विभाग को पत्र लिखकर सागौन लगाने के लिए प्राकृतिक वन का सफाया न करने का अनुरोध किया था लेकिन वन विभाग ने पेड़ो का कटान जारी रखा।
जब विभाग ने ग्रामीणों की नहीं सुनी तो ग्रामीणों ने चिपको बहुगुणा को बुलाने का पांडुरंग से आग्रह किया। पांडुरंग के बुलावे पर बहुगुणा अपने पुत्र प्रदीप के साथ वहां पहुंच गए। ग्रामीणों और युवकों के अलावा
स्थानीय विधायक से बातचीत के बाद 15 अगस्त, 1983 को बहुगुणा, पांडुरंग, प्रदीप और
ग्रामीणों के साथ 15 किमी पैदल चलकर जंगल में उस जगह पहुंचे जहां प्राकृतिक वन का
सफाया कर यूकेलिप्टिस और सागौन लगया गया था। वहां से वापस लौटकर रात को प्राइमरी
स्कूल में सभा हुई जिसमें ग्रामीणों और युवक मंडल ने पेड़ कटने से बचाने के लिए
आंदोलन चलाने का संकल्प लिया। 8 सितंबर, 1983 को सालकानी के आसपास के ग्रामीण
पेड़ों की कटाई को रोकने के लिए 8 किलोमीटर पैदल चलकर कलासे के जंगलों में पहुंचे।
पेड़ों को काटने से बचाने के लिए वे उनसे लिपट गए। मजदूर अपने शिविरों में लौट आए।
वन अधिकारियों ने ग्रामीणों को मनाने की कोशिश की। उन्होंने तर्क दिया कि वैज्ञानिक
तरीके से घने पेड़ों को काटकर नये जंगल तैयार किए जा रहे हैं। लेकिन ग्रामीण टस से
मस नहीं हुए और तीन महीने तक उन्होंने जंगलों में डेरा डाले रखा और लगातार निगरानी
रखी। पेड़ों को कटने से बचने के इस अनोखे अप्पिको की खबर उत्तर कन्नड़ जिले के
साथ-साथ कर्नाटक के दूसरे इलाकों में भी आग की तरह फैल गई। कोडागु, दक्षिण कनारा,
चिकमगलूर और शिमोगा जिलों में लोगों ने स्वतःस्फूर्त रूप से आंदोलन शुरू कर दिया और
जंगलों में पेड़ों की कटाई रोक दी। आंदोलन की प्रमुख मांग थींेंः- 1- प्राकृतिक
वनों की कटाई को रोकना 2- एकल प्रजातियों के रोपण को रोकना 3- वन आधारित उद्योगों
को दी गई पेड़ काटने की रियायतें वापस लेना 4- पश्चिमी घाट के वन क्षेत्रों में हरे
पेड़ों की कटाई पर पूरी तरह रोक 5 -वन नीति में वाणिज्यिक उद्देश्य से पारिस्थितिक
उद्देश्य में परिवर्तन, जिसमें क्षेत्र की जल सुरक्षा और खाद्य सुरक्षा के लिए
प्राकृतिक वनों की सुरक्षा पर जोर यह आंदोलन 1989 तक जारी रहा और छह वर्षों की लंबी
लड़ाई के बाद सरकार ने आंदोलन की लगभग सभी मांगों को मान लिया। कर्नाटक के तत्कालीन
मुख्यमंत्री रामकृष्ण हेगड़े उत्तर कन्नड़ जिले से थे और उन्होंने अपने वन मंत्री
को इस क्षेत्र का दौरा करने और अप्पिको कार्यकर्ताओं से बात करने के लिए भेजा।
सरकार ने वन नीति में बदलाव किए। एकल प्रजाति के पौधों के रोपण और प्राकृतिक वनों
की कटाई को रोक लगायी गयी। वन आधारित उद्योगों को दी गई लकड़ी की रियायतें वापस ले
लीं, जो प्राकृतिक वनों से लकड़ी निकाल सकते थे। यही नहीं पश्चिमी घाट के प्राकृतिक
वनों में हरे पेड़ों के कटान पर पूर्ण प्रतिबंध का आदेश भी 1990 में जारी किया गया।
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