शराब बंदी के सफल आंदोलन के बाद सुंदर लाल बहुगुणा ने जातीय समानता, ग्रामदान, शराबबंदी, महिला शक्ति जागरण और वन संरक्षण का संदेश पूरे उत्तराखंड में फैलाने की ठानी।
1973 में दीपावली के दिन उन्होंने सिमलासू से अपनी यात्रा शुरू की। अपने आध्यात्मिक गुरु और डिवाइन लाइफ सोसायटी के परमाध्यक्ष स्वामी चिदानंद का आशीर्वाद लेकर 25 अक्तूबर को उन्होंने यात्रा शुरू की। इस मौके पर मुनिकीरेती से पधारे स्वामी चिदांनंद ने कहा, भारतीय संस्कृति का महान संदेश फैलाने की शक्ति मैं 120 दिन की इस यात्रा में देखता हूं।
वर्ष 1906 में वेदांती संत स्वामी रामतीर्थ ने दीपावली के दिन यही भिलंगना नदी में जल समाधि ली थी। लाहौर में गणित के प्रोफेसर रामतीर्थ स्वामी विवेकानंद से प्रभावित होकर 1901 में सुदूर टिहरी आए और स्वामी रामतीर्थ बन कर यहीं के होकर रह गए।
सुन्दर लाल बहुगुणा ने पहला पड़ाव अपने जन्मस्थल मरोड़ा गांव को बनाया। इस गांव को राजभक्त परिवार से मतभेद के बाद उन्होंने 13 साल की उम्र में छोड़ दिया था। अब अचानक तीन दशक बाद जब सुंदर लाल बहुगुणा मरोड़ा पहुंचे तो गांव वाले उनके घर में जुट गए। बहुगुणा के साथ उनके यात्रा के साथी भवनी भाई भी थे।
यह गांव राजभक्त दीवानों का गांव था और सुंदर लाल राजशाही की खिलाफत करने वाले श्रीदेव सुमन के शार्गिद बन गए थे। परिवार ने उन्हें लानत दी तो उन्होंने गांव ही छोड़ दिया। बाद में घनसाली के सिल्यारा गांव में झोपड़ी डाल कर सुंदरलाल वहीं रहने लगे और फिर टिहरी में भागीरथी पर बनने वाले बांध के विरोध में अपना सिल्यारा का आश्रम भी छोड़ दिया।
गांव को छोड़ने का वाकया दोहराते हुए बहुगुणा बताते हैं कि हम स्कूल के लड़के गांधी जी के चेले सुमन के साथी बन गए थे। हमारा गांव राजभक्तों की बावन पीढ़ी के दीवानों का गांव था। जब यह बात गांव में पहुंची कि मैं राजद्रोही सुमन का साथी बन गया हूं तो गांव में खलबली मच गई। सबसे छोटा और मां का लाडला होने पर भी मां ने मुझे कहा कि तुम्हारे पिताजी ने राजदरबार का नमक खाया है। तुम राजद्रोही बन रहे हो। यह नमक तुम्हें गला देगा। मेरे मामा जो मुझे बहुत प्यार करते थे उन्होंने भी कहा यह तो कंस का भानजा पैदा हो गया। लेकिन मैने तो श्रीदेव सुमन का साथ देने की ठान ली थी तो गांव ही छोड़ दिया। एक बार जब मां की मौत का समाचार मिला तो गांव गया।
सुन्दर लाल बहुगुणा रवांई, जौनपुर , जौनसार बावर, रुद्रप्रयाग, चमोली के सुखताल, गवालदम, थराली होते हुए कपकोट पहुंचे। धर्मघर, पिथौरागढ़, अल्मोड़ा, नैनीताल होते हुए उन्होंने पैदल ही पूरा उत्तराखंड नाप डाला। 1400 किलोमीटर की यात्रा उन्होंने 22 फरवरी 1974 को मुनिकीरेती में पूरी की। इस दौरान उनके साथ उनके सहयोगी और सर्वोदयी घनश्याम सैलानी, आनंद सिंह बिष्ट, सुरेंद्र दत्त भट्ट आदि साथ रहे।
यात्रा के दौरान सुंदर लाल बहु्गुणा जहां ग्रामीणों को नशाबंदी, ग्राम स्वराज, जातीय समानता, महिला शिक्षा और स्वाबलंबन का महत्व बताते वहीं उनकी समस्याएं जानकर उन्हें जिले के हाकिमों तक पहुंचाने और अखबारों के माध्यम से उजागर करने का भी प्रयास करते। जिस गांव में वे दिन में विश्राम करते और रात को ठहरते वहां ग्रामीणों को अपनी यात्रा के अनुभव भी सुनाते जिन्हें ग्रामीण बड़ी उत्सुकता के साथ सुनते।
उनकी पीठ पर उनका भारी पिट्ठू होता जिसमें कपड़े लत्तों के अलावा सूत कातने का गांधी का चर्खा और पुस्तकें होती थीं। यात्रा के दौरान उन्होंने बरसात में खिसकते पहाड़ों को भी देखा। बेलाकूची, गेंवला, पिलखी में हुई तबाही के अध्ययन से उन्हे महसूस हुआ कि पहाड़ियों पर जहां वनों का सफाया हुआ है वहीं ज्यादा तबाही मची। उन्होंने देखा कि जिन गांवों में ग्रामीणों ने बांज जैसी चौड़ी पत्ती के वन संरक्षित किए थे वहां कि फिजा ही अलग थी। मीठे पानी के सोते वहां गांव में ही थे। उनकी इस यात्रा ने ही चिपको आंदोलन को नई दिशा दी।
Click here to access english version सुंदर लाल बहुगुणा और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती विमला बहुगुणा अपनी यात्राओं के दौरान सुंदर लाल बहुगुणा ने वन विनाश के परिणामों और वन संरक्षण के फायदों को बारीकी से समझा। उन्होने देखा कि पेड़ों में मिट्टी को बांधे रखने और जल संरक्षण की क्षमता है। अंग्रेजों के फैलाए चीड़ और इसी से जुड़ी वन विभाग की वनों की परिभाषा ; जंगलों की देन लकड़ी लीसा और व्यापार भी उनके गले नहीं उतरी। उनका मानना था कि वनों का पहला उपयोग पास रह रहे लोगों के लिए हो। उससे उन्हें अपनी जरूरत की चीजें खाद्य पदार्थ, घास, लकड़ी और चारा घर के पास ही सुलभ हों। उन्होंने कहा कि वनों की असली देन तो मिट्टी,पानी और हवा है। उनकी इसी सोच से बाद में चिपको आंदोलन के नारे : क्या हैं जंगल के उपकरण, मिट्टी पानी और बयार, मिट्टी पानी और बयार, जिंदा रहने के आधार का जन्म हुआ। उन्होंने वन अधिकारों के लिए बड़कोट के तिलाड़ी में शहीद हुए ग्रामीणों के शहादत दिवस 30 मई को वन दिवस के रूप मे मनाने का 30 मई 1967 में निश्चय किया। इसमें अपने सर्वोदयी साथियों के अलावा सभी से शामिल होने की उन्होंने ...
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