Skip to main content

सुंदर लाल बहु्गुणा 8: 120 दिन में पैदल नाप दिया पूरा उत्तराखंड

यात्रा के दौरान जाजल में
 caption

यात्रा की समाप्ति पर रामझूला में
सुंदर लाल बहु्गुणा 8: 120 दिन में पैदल नाप दिया पूरा उत्तराखंड

शराब बंदी के सफल आंदोलन के बाद सुंदर लाल बहुगुणा ने जातीय समानता, ग्रामदान, शराबबंदी, महिला शक्ति जागरण और वन संरक्षण का संदेश पूरे उत्तराखंड में फैलाने की ठानी। 1973 में दीपावली के दिन उन्होंने सिमलासू से अपनी यात्रा शुरू की। अपने आध्यात्मिक गुरु और डिवाइन लाइफ सोसायटी के परमाध्यक्ष स्वामी चिदानंद का आशीर्वाद लेकर 25 अक्तूबर को उन्होंने यात्रा शुरू की। इस मौके पर मुनिकीरेती से पधारे स्वामी चिदांनंद ने कहा, भारतीय संस्कृति का महान संदेश फैलाने की शक्ति मैं 120 दिन की इस यात्रा में देखता हूं। वर्ष 1906 में वेदांती संत स्वामी रामतीर्थ ने दीपावली के दिन यही भिलंगना नदी में जल समाधि ली थी। लाहौर में गणित के प्रोफेसर रामतीर्थ स्वामी विवेकानंद से प्रभावित होकर 1901 में सुदूर टिहरी आए और स्वामी रामतीर्थ बन कर यहीं के होकर रह गए। सुन्दर लाल बहुगुणा ने पहला पड़ाव अपने जन्मस्थल मरोड़ा गांव को बनाया। इस गांव को राजभक्त परिवार से मतभेद के बाद उन्होंने 13 साल की उम्र में छोड़ दिया था। अब अचानक तीन दशक बाद जब सुंदर लाल बहुगुणा मरोड़ा पहुंचे तो गांव वाले उनके घर में जुट गए। बहुगुणा के साथ उनके यात्रा के साथी भवनी भाई भी थे। यह गांव राजभक्त दीवानों का गांव था और सुंदर लाल राजशाही की खिलाफत करने वाले श्रीदेव सुमन के शार्गिद बन गए थे। परिवार ने उन्हें लानत दी तो उन्होंने गांव ही छोड़ दिया। बाद में घनसाली के सिल्यारा गांव में झोपड़ी डाल कर सुंदरलाल वहीं रहने लगे और फिर टिहरी में भागीरथी पर बनने वाले बांध के विरोध में अपना सिल्यारा का आश्रम भी छोड़ दिया। गांव को छोड़ने का वाकया दोहराते हुए बहुगुणा बताते हैं कि हम स्कूल के लड़के गांधी जी के चेले सुमन के साथी बन गए थे। हमारा गांव राजभक्तों की बावन पीढ़ी के दीवानों का गांव था। जब यह बात गांव में पहुंची कि मैं राजद्रोही सुमन का साथी बन गया हूं तो गांव में खलबली मच गई। सबसे छोटा और मां का लाडला होने पर भी मां ने मुझे कहा कि तुम्हारे पिताजी ने राजदरबार का नमक खाया है। तुम राजद्रोही बन रहे हो। यह नमक तुम्हें गला देगा। मेरे मामा जो मुझे बहुत प्यार करते थे उन्होंने भी कहा यह तो कंस का भानजा पैदा हो गया। लेकिन मैने तो श्रीदेव सुमन का साथ देने की ठान ली थी तो गांव ही छोड़ दिया। एक बार जब मां की मौत का समाचार मिला तो गांव गया। सुन्दर लाल बहुगुणा रवांई, जौनपुर , जौनसार बावर, रुद्रप्रयाग, चमोली के सुखताल, गवालदम, थराली होते हुए कपकोट पहुंचे। धर्मघर, पिथौरागढ़, अल्मोड़ा, नैनीताल होते हुए उन्होंने पैदल ही पूरा उत्तराखंड नाप डाला। 1400 किलोमीटर की यात्रा उन्होंने 22 फरवरी 1974 को मुनिकीरेती में पूरी की। इस दौरान उनके साथ उनके सहयोगी और सर्वोदयी घनश्याम सैलानी, आनंद सिंह बिष्ट, सुरेंद्र दत्त भट्ट आदि साथ रहे। यात्रा के दौरान सुंदर लाल बहु्गुणा जहां ग्रामीणों को नशाबंदी, ग्राम स्वराज, जातीय समानता, महिला शिक्षा और स्वाबलंबन का महत्व बताते वहीं उनकी समस्याएं जानकर उन्हें जिले के हाकिमों तक पहुंचाने और अखबारों के माध्यम से उजागर करने का भी प्रयास करते। जिस गांव में वे दिन में विश्राम करते और रात को ठहरते वहां ग्रामीणों को अपनी यात्रा के अनुभव भी सुनाते जिन्हें ग्रामीण बड़ी उत्सुकता के साथ सुनते। उनकी पीठ पर उनका भारी पिट्ठू होता जिसमें कपड़े लत्तों के अलावा सूत कातने का गांधी का चर्खा और पुस्तकें होती थीं। यात्रा के दौरान उन्होंने बरसात में खिसकते पहाड़ों को भी देखा। बेलाकूची, गेंवला, पिलखी में हुई तबाही के अध्ययन से उन्हे महसूस हुआ कि पहाड़ियों पर जहां वनों का सफाया हुआ है वहीं ज्यादा तबाही मची। उन्होंने देखा कि जिन गांवों में ग्रामीणों ने बांज जैसी चौड़ी पत्ती के वन संरक्षित किए थे वहां कि फिजा ही अलग थी। मीठे पानी के सोते वहां गांव में ही थे। उनकी इस यात्रा ने ही चिपको आंदोलन को नई दिशा दी।

जारी......
जाजल में युवा यात्रियों के साथ

शताब्दी की ओर अग्रसर सुंदर लाल बहुगुणा 
यात्रा के दौरान अपने गांव मरोड़ा में (बाएं से दूसरे)

Comments

Popular posts from this blog

सुंदर लाल बहुगुणा 20: पर्यावरण की रक्षा के लिए कश्मीर से कोहिमा तक पूरे हिमालय को पैदल ही नाप डाला

श्रीनगर से 30 मई 1981 को शुरू हुई 4870 किमी की पदयात्रा कोहिमा में 1 फरवरी 1983 को पूरी हुई चार चरणों में पूरी हुई यात्रा का 2 फरवरी को कोहिमा के राजभवन में पौधे रोपकर हुआ विधिवत समापन हिमालय की लंबी यात्राओं के बाद चिपको बहुगुणा के मन में यह बात गहराई से बैठ गई थी कि आर्थिक फायदे के लिए अत्याधिक पेड़ कटान से हिमालयी क्षेत्र की धरती इस कदर जख्मी हो गयी है कि इसके घावों के भरने तक हरे पेड़ों को काटना बिल्कुल बंद करना होगा। इसके लिए उन्होंने नारा दिया था इकोलजाॅजी इज परमानेंट इकोनाॅमी। बहुगुणा के इस नए दर्शन से सरकारों के अलावा उनके कई साथी भी उनसे नाराज हो गए थे लेकिन धुन के पक्के सुंदर लाल ने इसकी परवाह नहीं की और हिमालय की एक लंबी यात्रा के जरिए अपनी बात आम जन मानस तक पहुंचाने की ठानी। चिपको आंदोलन की गूंज तब तक विदेशों में भी पहुंच गई थी। और पदयात्राओं को माना जाता था चिपको का एक अहम हिस्सा। स्विस समाजशास्त्री गेरहार्ड फिस्टर ने वर्ष 1981 में अपने देशवासियों को बताया था कि चिपको आंदोलन की विशेषता यह है कि पदयात्रा करने वाले लोग अपने दिल की बात कहते हैं। इसलिए लोगों के दिलों तक पहुंचत

हेंवल घाटी से बदली चिपको आंदोलन की दिशा, पीएसी लौटी बैरंग

अदवानी में वनों को बचाने को पहुंचे ग्रामीण   चिपको आंदोलन को समर्थन देने पहुंचे रिचर्ड सेंट बार्बे बेकर  Click here for english version बहुगुणा ने यहीं दिया क्या हैं जंगल के उपकार मिट्टी  पानी और बयार, नारा वनों को बचाने के लिए हथकड़ी पहन कर पहली बार जेल गए आंदोलनकारी  कुंवर प्रसून ने इजाद किए आंदोलन के नए-नए तरीके, आंदोलन के लिए नारे भी गढ़े वनों को लेकर बहुगुणा के विचारों को हेंवलघाटी में मूर्त रूप मिला। यहां लोग पेड़ों को आरों से बचाने के लिए उन पर न केवल चिपक गए बल्कि पुलिस और पीएसी का सामना करने के साथ ही बाकयदा हथकड़ी पहन कर जेल भी गए। सुदर लाल बहुगुणा ने यहीं नारा दियाः- क्या हैं जंगल के उपकार मिट्टी पानी और बयार।  बहुगुणा की प्रेरणा से धूम सिंह नेगी ने स्थानीय स्तर पर आंदोलन को नेतृत्व प्रदान किया तो कुंवर प्रसून ने आंदोलन केे लिए नए-नए तरीके इजाद किए और नारे गढ़े। आंदोलन में प्रताप शिखर, दयाल भाई, रामराज बडोनी, विजय जड़धारी, सुदेशा देवी, बचनी देवी और सौंपा देवी समेत दर्जनों महिलाओं युवाओं और छात्रों की अहम भूमिका रही। बकौल रामराज बडोनी आंदोलन सुंदर लाल बहुगुणा के मार्गदर्शन में चला

सुंदर लाल बहुगुणा 18: सरकार ने पेड़ काटना नहीं रोका तो पद्मश्री भी ठुकरा दी

नई दिल्ली में इंदिरा गांधी से सहयोगियों के साथ मुलाकात करते बहुगुणा Access the english version here. इंदिरा गांधी के विनम्र आग्रह को भी धुन के पक्के चिपको बहुगुणा ने नहीं माना इंदिरा के कड़े रुख के बाद यूपी सरकार को पेड़ काटने पर लगाना पड़ा पूर्ण प्रतिबंध 26 जनवरी 1981 को पेड़ों को बचाने के चिपको आंदोलन के लिए सुंदर लाल बहुगुणा को पद्मश्री देने की घोषणा हुई। चिपको आंदोलन के बहुगुणा के साथी इससेे खुश थे। लेकिन चिपको बहुगुणा ने हरे पेड़ काटने पर पूरी तरह प्रतिबंध नहीं लगाने पर पद्मश्री लेने से इनकार कर दिया।  धुन के पक्के बहुगुणा ने आंदोलन के प्रति सकारात्म रुख रखने वाली तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के आग्रह को भी विनम्रता पूर्वक ठुकरा दिया। उन्होंने कहा कि धरती हमारी मां है और जब तक हरे पेड़ कटते रहेंगे और धरती मां का लहू मांस  ;मिट्टी, पानीद्ध बहकर जाता रहेगा वे पुरुस्कार  कैसे ले सकते हैं। बाद में इंदिरा गांधी के कड़े रुख के बाद यूपी सरकार को हरे पेड़ों के व्यापारिक कटान पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाना पड़ा। हरे पेड़ों के व्यापारिक कटान पर रोक के आश्वासन के बावजूद तत्कालीन यूपी सरकार ने